Saturday 22 September 2012

गज़ल -किसी बच्चे को इक टॉफी थमा दो फिर हँसी देखो

चित्र -गूगल से साभार 
किसी बच्चे को इक टॉफी थमा दो फिर हँसी देखो 
किताबों में नहीं लिक्खा है ये सच है अभी देखो 
किसी बच्चे को इक टॉफी थमा दो फिर हँसी देखो 

अगर रंजिश भी है तो फैसले करिए  मोहब्बत से 
किसी मजदूर के गुस्से में उसकी बेबसी देखो 

रसोईघर के चूल्हों को बुझा देने की है साजिश 
हुकूमत  की मोहब्बत और हमसे आशिकी देखो 

समन्दर को बड़ा कहते हैं सब ,पर मैं नहीं कहता 
कई दरिया का जल पीता है उसकी तिश्नगी देखो 


मुखालिफ़ मौसमों में ये धुँआ ,कालिख नहीं देखो 
अँधेरे में मशालों में है कितनी रौशनी देखो 

वो इक बूढ़ा जिसे बच्चे अकेला छोड़ देते हैं 
सफ़र में जब कभी गिरता उठाते अजनबी देखो 

किसी चश्में से मैं देखूँ हमेशा वो नज़र आये 
मेरी गज़लों से उसके हुस्न  की बाबस्तगी देखो 

शहर का फूल है खुशबू भी उसकी गर्द ओढ़े है 
मेरी बस्ती के फूलों में हमेशा ताज़गी देखो 
चित्र -गूगल से साभार 

Sunday 16 September 2012

राजनीति के इस अरण्य में कितने आदमखोर हो गए

चित्र -गूगल से साभार 
एक नवगीत -राजनीति के इस अरण्य में 
पढ़ते -पढ़ते 
आप, और हम 
लिखते -लिखते बोर हो गए |
राजनीति के 
इस अरण्य में 
कितने आदमखोर हो गए |

पाँव तले 
शीशों की किरचें 
चेहरों पर नाख़ून दिख रहे ,
अदब घरों में 
तने असलहे 
फिर भी हम नवगीत लिख रहे ,
कटी पतंगें 
कब गिर जाएँ 
हम मांझे की डोर हो गए |

अख़बारों 
के पहले पन्ने 
उनके जो बदनाम हो गए ,
कालजयी 
कृतियों के लेखक 
कलाकार गुमनाम हो गए ,
काले कौवे 
हंस बन गए 
सेही वन के मोर हो गए |

गिरते पुल हैं 
टूटी सड़कें 
प्रजातंत्र लाचार हो गया ,
राजनीति 
का मकसद सेवा नहीं 
सिर्फ़  व्यापार हो गया ,
क्रांतिकारियों 
के वंशज हम 
अब कितने कमजोर हो गए |

मुखिया ,
मौसम हुए सयाने 
खुली आँख में धूल झोंकते ,
हम सब तो 
असमंजस बाबू 
पांच बरस पर सिर्फ़ टोकते ,
साथी 
सूरज बनना होगा 
अन्धेरे मुँहजोर हो गए |

Monday 10 September 2012

एक प्रेमगीत -तुम्हारे नहीं होने पर यहाँ कुछ भी नहीं होता

चित्र -गूगल से साभार 
तुम्हारे नहीं होने पर यहाँ कुछ भी नहीं होता 
तुम्हारे 
नहीं होने पर 
यहाँ कुछ भी नहीं होता |
सुबह से 
शाम मैं 
खामोशियों में जागता -सोता |

तुम्हारे 
साथ पतझर में 
भी  जंगल सब्ज लगता है ,
सुलगते 
धुँए सा सिगरेट के, 
अब  चाँद दिखता  है ,
भरे दरिया में 
भी लगता है 
जैसे जल नहीं होता |

नहीं हैं रंग 
वो स्वप्निल 
क्षितिज के इन्द्रधनुओं में ,
न ताजे 
फूल में खुशबू 
चमक गायब जुगुनुओं में ,
प्रपातों में 
कोई खोया हुआ 
बच्चा दिखा रोता |

मनाना 
रूठना फिर 
गुनगुनाना और बतियाना ,
किताबों में 
मोहब्बत का 
नहीं होता ये अफ़साना ,
हमारे सिर 
का भारी  बोझ 
अब कोई नहीं ढोता |

किचन भी 
हो गया सूना 
नहीं अब बोलते बर्तन ,
महावर पर 
कोई कविता नहीं 
लिखता है अन्तर्मन |
टंगे हैं 
खूंटियों पर अब 
कोई कपड़े नहीं धोता |


खिड़कियों से 
डूबता सूरज 
नहीं हम देख पाते ,
अब परिन्दों 
के सुगम -
संगीत मन को नहीं भाते ,
लौट आओ 
झील में डूबें -
लगाएं साथ गोता |
चित्र -गूगल से साभार 

Wednesday 5 September 2012

एक गीत -महाप्राण निराला को समर्पित -ओ सदानीरा निराला के सुनहरे गीत गाना

महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला 
एक गीत -महाप्राण निराला को समर्पित -
ओ सदानीरा निराला के सुनहरे गीत गाना 
पर्वतों की 
घाटियों से 
जब इलाहाबाद आना |
ओ सदानीरा !
निराला के 
सुनहरे गीत गाना |

आज भी 
'वह तोड़ती पत्थर '
पसीने में नहाये ,
सर्वहारा 
के लिए अब 
कौन ऐसा गीत गाये ,
एक फक्कड़ 
कवि हुआ था 
पीढ़ियों को तुम बताना |

'राम की थी 
शक्ति पूजा '
पर निराला गा रहे हैं ,
उस कथानक 
में निराला 
राम बनकर आ रहे है ,
अर्चना में 
कम न हो जाएँ 
कमल के फूल लाना |

आज भी है 
वहीं दारागंज 
संगम के किनारे ,
वक्त की 
लहरें मिटाकर 
ले गयीं पदचिन्ह सारे ,
ओ गगन 
जब गर्जना तो 
वही 'बादल राग 'गाना |

पूर्णिमा के 
ज्वार सा मन ,
वक्ष में आकाश सारा ,
वह 
इलाहाबाद का 
उसको इलाहाबाद प्यारा ,
मुश्किलों 
में भी न छोड़ा 
काव्य से रिश्ता निभाना |


वक्त  की 
पगडंडियों पर 
वह अकेला चल रहा था ,
आँधियों में 
एक जिद्दी दीप 
बनकर जल रहा था ,
जानते हैं 
सब  बहुत पर 
आज भी  वह कवि अजाना |

गोद बासन्ती 
मिली पर 
पत्थरों के गीत गाया ,
फूल 
साहूकार ,सेठों 
की तरह ही नज़र आया ,
छन्द तोड़ा 
मगर उसको 
छन्द आता था सजाना |
चित्र -गूगल से साभार 

Monday 3 September 2012

एक गीत -प्यार के हम गीत रचते हैं

चित्र -गूगल से साभार 
प्यार के हम गीत रचते हैं इन्हीं कठिनाइयों में
खिल रहा है 
फूल कोई 
धान की परछाइयों में |
सो रहे 
खरगोश से दिन 
पर्वतों की खाइयों में |

ज्वार पर 
देखो समय के 
गीत पंछी गा रहे हैं ,
बादलों के 
नर्म फाहे 
चाँद को सहला रहे है ,
देखकर 
तुमको यहीं हम 
खो गए पुरवाइयों में |

हलद 
बांधे चल रहा 
मौसम हरे रूमाल में ,
लगे हैं 
खिलने गुलाबी-
कँवल मन के ताल में ,
साँझ ढलते 
मन हमारा 
खो गया शहनाइयों में |

कास -बढ़नी 
को लगे फिर 
चिठ्ठियाँ लिखने उजाले ,
आँख पर 
सीवान के 
चश्में चढ़े हैं धूप वाले ,
एक आंचल 
इत्र भींगा 
उड़ रहा अमराइयों में |

झील की 
लहरें नहाकर 
रेशमी लट खोलती हैं ,
चुप्पियों 
के वक्त भी 
ऑंखें बहुत कुछ बोलती हैं ,
प्यार के 
हम गीत 
रचते हैं इन्हीं कठिनाइयों में |
चित्र -गूगल से साभार 

Saturday 1 September 2012

एक गज़ल -ये बात और है ये धूप मुझसे हार गई

चित्र -गूगल से साभार 
ये बात और है ये धूप मुझसे हार गई 
जबान होते हुए भी जो बेजुबान रहे 
हमारे मुल्क में ऐसे ही हुक्मरान रहे 

जो मीठी झील में मछली पकड़ना सीख गए 
परों के रहते परिन्दे वो बे -उड़ान रहे 

ये बात और है ये धूप मुझसे हार गई 
मगर दरख़्त कहाँ मेरे सायबान रहे 

महल हैं उनके जिन्हें नींव का पता ही नहीं 
मकां बनाया जिन्होंने वो बे -मकान रहे 

मैं फेल होने के डर से हयात पढ़ता रहा 
मेरे सफ़र में हमेशा ही इम्तिहान रहे 

पतंगें रख के उड़ाना ही उनको भूल गया 
मेरे शहर में धुंए वाले आसमान रहे 

वो इक शिकारी था छिपकर शिकार करता रहा 
शरीक- ए- ज़ुर्म थे हम भी कि इक मचान रहे  

कुतुबमीनार पे चढ़कर वो हमको भूल गए 
हम उनके वास्ते सीढ़ी के पायदान रहे 

हमारे सिर पे जरूरत का बोझ था इतना 
बुजुर्ग देह के भीतर भी  नौजवान रहे 

हम अपनी जंग सरहदों पे कभी हारे नहीं 
घरों की जंग में अक्सर लहूलुहान रहे 
चित्र -गूगल से साभार 

एक ग़ज़ल -ग़ज़ल ऐसी हो

  चित्र साभार गूगल  एक ग़ज़ल - कभी मीरा, कभी तुलसी कभी रसखान लिखता हूँ  ग़ज़ल में, गीत में पुरखों का हिंदुस्तान लिखता हूँ  ग़ज़ल ऐसी हो जिसको खेत ...