Saturday 20 October 2012

एक गीत -मुझको मत कवि कहना मैं तो आवारा हूँ

चित्र -गूगल से साभार 
एक गीत -
मुझको मत कवि कहना मैं तो आवारा हूँ 
ना कोई 
राजा हूँ 
ना मैं हरकारा हूँ |
यहाँ -वहाँ 
गाता हूँ 
मैं तो बंजारा हूँ |

साथ नहीं 
सारंगी 
ढोलक ,करताल नहीं ,
हमको 
सुनते पठार 
श्रोता वाचाल नहीं ,
छेड़ दें 
हवाएं तो 
बजता इकतारा हूँ |

धूप ने 
सताया तो 
सिर पर बस हाथ रहे ,
मौसम की 
गतिविधियों में 
उसके  साथ   रहे ,
नदियों में 
डूबा तो 
स्वयं को पुकारा हूँ |

झरनों का 
बहता जल 
चुल्लू से पीता हूँ ,
मुश्किल से 
मुश्किल क्षण 
हंस -हंसकर जीता हूँ ,
वक्त की 
अँगीठी में 
जलता अंगारा हूँ |

फूलों से 
गन्ध मिली 
रंग मिले फूलों से ,
रोज  -नए 
दंश मिले 
राह के बबूलों से ,
मौसम के 
साथ चढ़ा 
और गिरा पारा हूँ |

महफ़िल तो 
उनकी है 
जिनके सिंहासन हैं ,
हम तो 
वनवासी हैं 
टीले ही आसन हैं ,
मुझको मत 
कवि कहना 
मैं तो आवारा हूँ |
चित्र -गूगल से साभार 

Saturday 13 October 2012

एक गीत -माँ ! नहीं हो तुम

चित्र -गूगल से साभार 

 माँ की स्मृतियों को प्रणाम करते हुए 
एक गीत -माँ ! नहीं हो तुम 
माँ !नहीं हो 
तुम कठिन है 
मुश्किलों का हल |
अब बताओ 
किसे लाऊँ 
फूल ,गंगाजल |

सफ़र से 
पहले दही -गुड़ 
होंठ पर रखती ,
किन्तु घर के 
स्वाद कड़वे 
सिर्फ़ तुम चखती ,
राह में 
रखती 
हमारे एक लोटा जल |

सांझ को 
किस्से सुनाती 
सुबह उठ कर गीत गाती ,
सगुन -असगुन 
पर्व -उत्सव 
बिना पोथी के बताती ,
रोज 
पूजा में 
चढ़ाती देवता को फल |

तुम दरकते 
हुए रिश्तों की 
नदी पर पुल बनाती |
मौसमों का 
रुख समय से 
पूर्व माँ तुम भाँप जाती ,
तुम्हीं से 
था माँ !
पिता के बाजुओं में बल |

मौन में तुम 
गीत चिड़ियों का 
अंधेरे में दिया हो ,
माँ हमारे 
गीत का स्वर 
और गज़ल का काफ़िया हो ,
आज भी 
यादें तुम्हारी 
हैं मेरा संबल |

Wednesday 10 October 2012

फिर लौट रहा है हिन्दी गीतों का सुहाना समय -शब्दायन -एक पुस्तक समीक्षा

श्री निर्मल शुक्ल
संपादक -शब्दायन 
हिंदी नवगीत पर एक समवेत संकलन या संदर्भ ग्रंथ -
शब्दायन -संपादक -श्री निर्मल शुक्ल 
एक नज़र /एक समीक्षा -

शब्दायन की प्रस्तुति और सामग्री देखकर चमत्कृत और अभिभूत हूँ | यह एक दस्तावेजी कार्य सम्पन्न हुआ है |किसी आलोचक और  किसी साहित्य के दुकानदार के वश की बात नहीं है कि वह गीत /नवगीत विधा के आवेग को बाधित कर सके |उसकी राह रोक सके |यह विधा सिर पर चढ़कर बोलती है |जब सिर पर चढ़कर बोलती है तो सहज ही अपनी स्वीकृति प्राप्त कर लेती है या कहें अपना हक प्राप्त कर लेती है |पिछले लगभग चार दशकों से सारे आलोचकीय षडयंत्रों के बाद भी कविता की इस आदिम विधा ने अपना लोहा मनवाने पर मजबूर किया है |उसी उजली परंपरा कि यह एक मजबूत कड़ी है |पुस्तक हाथ मे लेकर यह अनुभूति होती है ..जैसे गीत विधा का सागर ही हमारे मनप्राण में लहरा उठा है |यह एक साधक ही कर सकता था जो काम भाई निर्मल शुक्ल ने बड़ी कुशलता से किया है |आने वाले समय में यह महासंग्रह और अधिक प्रासंगिक होता चला जाएगा |यह बात मैं दावे के साथ कह रहा हूँ |यह तत्व कतई निष्फल नहीं जाएगा और आने वाले काल के भाल पर सदा सर्वदा देदीप्यमान रहेगा | भाई निर्मल शुक्ल ने गीत ऋषि की तरह अपनी परंपरा और नए काल बोध के बीच एक सेतु तैयार कर हम सब गीत विधा के रचनाकारों को कृतज्ञ होने का अवसर दिया है |मैं उनकी अकूत निष्ठा को अपने अशेष प्रणाम देता हूँ |--यश मालवीय 

 नवगीत पर एक प्रतिनिधि साझा संकलन या संदर्भ ग्रंथ 
एक समीक्षा -
हिंदी गीतों की बांसुरी पर जब -जब धूल की परतें जमीं है ,जब -जब उसकी लय बाधित हुई है किसी न किसी साहित्य मनीषी के द्वारा उस पर जमी धूल को साफ कर उसे चमकदार और लयदार बनाने का काम किया  गया है |यह प्रयास दशकों पूर्व डॉ0 शंभुनाथ सिंह ने नवगीत दशक और नवगीत अर्द्धशती निकालकर किया था उसके पूर्व पाँच जोड़ बांसुरी का सम्पादन डॉ0 चन्द्र्देव द्वारा किया गया था |कालांतर में डॉ0 दिनेश सिंह ने नवगीत पर आधारित पत्रिका नए पुराने निकालकर नवगीत की वापसी का काम किया था ,डॉ0 कन्हैयालाल नंदन ने गीत समय निकालकर नवगीत को स्थापित करने का प्रयास किया |लेकिन हाल के दिनों मे डॉ0 राधेश्याम बंधु द्वारा संपादित नवगीत के नए प्रतिमान प्रकाशित हुआ |सबसे ताजातरीन प्रयास अभी हाल में नवगीत के चर्चित कवि और उत्तरायण पत्रिका के संपादक श्री निर्मल शुक्ल द्वारा शब्दायन का सम्पादन कर किया गया |जब कोई बड़ा काम किया जाता है तो उसकी आलोचना भी होती है उसमें कुछ कमियाँ भी होती है ,लेकिन कोई पहल करना या कोई बड़ा काम करना मुश्किल होता है| आलोचना करना बहुत आसान काम है |निर्मल शुक्ल द्वारा  संपादित इस महासंग्रह मे कुल एक हजार चौसठ पृष्ठ हैं |पुस्तक का मूल्य एक हजार दो सौ रक्खा गया है | यह ग्रंथ नवगीत के शोध छात्रों के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है |संपादक निर्मल शुक्ल ने इस पुस्तक के प्रथम खंड मे दृष्टिकोण के अंतर्गत नवगीत पर नवगीतकारों की टिप्पणी या परिभाषा प्रकाशित किया है |खंड दो में लगभग चौतीस कवियों के नवगीत प्रकाशित हैं |खंड तीन में भी कुछ गीतकारों के गीत प्रकाशित हैं |खंड चार सबसे वृहद खंड है जिसमें अधिकाधिक नवगीतकारों के गीत /नवगीत उनके जीवन परिचय के साथ प्रकाशित हैं |पुस्तक के आखिर में आभार और परिचय और प्रारम्भ में संपादक द्वारा समपादकीय भी लिखा गया है |श्री निर्मल शुक्ल द्वरा किया गया यह प्रयास बहुत ही सरहनीय है और आने वाले दिनो में गीत /नवगीत की दशा और दिशा दोनों ही बदलने में समर्थ होगा |पुस्तक की साज -सज्जा भी सरहनीय है |श्री निर्मल शुक्ल जी को मैं अपनी ओर से और हिंदी नवगीत के पाठकों और कवियों को ओर से बधाई देता हूँ और उनके इस महत्वपूर्ण कार्य को नमन करता हूँ |

संकलन से हिन्दी के सुपरिचित गीत कवि डॉ0 कुँवर बेचैन का एक गीत -
बहुत प्यारे लग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो 
ठग नहीं हो ,किन्तु फिर भी 
हर नज़र को ठग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो |

दूर रहकर भी निकट हो 
प्यास में ,तुम तृप्ति घट हो 
मैं नदी की इक लहर हूँ 
उम नदी का स्वच्छ तट हो 
सो रहा हूँ किन्तु मेरे 
स्वप्न में तुम जग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो |

देह मादक, नेह मादक 
नेह का मन गेह मादक 
और यह मुझ पर बरसता 
नेह वाला मेह मादक 
किन्तु तुम डगमग पगों में 
एक संयत पग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो |

अंग ही हैं सुघर गहने 
हो बदन पर जिन्हें पहने 
कब न जाने आऊँगा मैं 
यह जरा सी बात कहने 
यह कि तुम मन की अंगूठी के 
अनूठे नग रहे हो 
बहुत प्यारे लग रहे हो |  कवि -डॉ0 कुँवर बेचैन 

पुस्तक का नाम -शब्दायन 
संपादक -डॉ0 निर्मल शुक्ल 
प्रकाशन -उत्तरायण प्रकाशन 
मूल्य -एक हजार दो सौ रूपये मात्र 
लखनऊ संपर्क -09839825062

Sunday 7 October 2012

एक प्रेमगीत -आधा कप चाय और आधा कप प्यार

चित्र -गूगल से साभार 
एक प्रेमगीत -आधा कप चाय और आधा कप प्यार 
आधा कप 
चाय और 
आधा कप प्यार |
चुपके से 
आज कोई 
दे गया उधार |

सांकल को 
बजा गयी 
सन्नाटा तोड़ गई ,
यादों की 
एक किरन 
कमरे में छोड़ गई ,
मौन की 
उँगलियों से 
छू गया सितार |

सम्मोहन 
आकर्षण 
मोहक मुस्कान लिए ,
तैर गई 
खुशबू सी 
वो मगही पान लिए ,
लहरों ने 
तोड़ दिया 
अनछुआ कगार |

परछाई 
छूने में 
हम हारे या जीते ,
सूरज के 
साथ जले 
चांदनी कहाँ पीते ,
अनजाने में 
मौसम 
दे गया बहार |

वृन्दावन 
होता मन 
गोकुल के नाम हुआ ,
बोझिल 
दिनचर्या में 
एक सगुन काम हुआ ,
आना जी 
आना फिर 
वही शुक्रवार |

जीवन का 
संघर्षों से 
वैसे नाता है ,
कभी -कभी 
लेकिन यह 
प्रेमगीत गाता है ,
कभी यह 
वसंत हुआ 
कभी रहा क्वार |
चित्र -गूगल से साभार 

Thursday 4 October 2012

एक गीत -अपना दुःख कब कहती गंगा

हर की पैड़ी हरिद्वार -चित्र गूगल से साभार 
भूगोल की किताबों में भले ही गंगा को नदी लिखा गया हो |दुनिया की किंवदन्तियों में भले ही इसे नदी माना जाता  हो | लेकिन पौराणिक आख्यानों में इसे देवी का दर्जा प्राप्त है |गंगा हमारे लिए माँ है ,यह भारत की जीवन रेखा है |एक गंगा धरती पर बहती है दूसरी हमारी आस्थाओं में प्रवाहमान है |धरती की गंगा भले ही एक दिन हमारे कुकर्मों से हमारी आँखों से हमेशा के लिए ओझल हो जाये या उसका अस्तित्व समाप्त हो जाये |लेकिन  हमारी आस्था में प्रवाहमान गंगा कभी खत्म नहीं होगी |लेकिन क्या सिर्फ़ हमें आस्था में ही गंगा चाहिए या वास्तविकता में |गंगा जैसी औषधीय गुण वाली नदी इतनी खराब स्थिति में क्यों पहुँच गयी |हम अपनी नदियों की पवित्रता क्यों नहीं बचा पा रहे हैं |क्या हम सिर्फ़ सरकार पर दोष मढ़कर बच सकते हैं |हम दुनिया के अन्य देशों की तरह अपनी नदियों को साफ सुथरा क्यों नहीं रख सकते हैं |हमें धार्मिक मान्यताओं की जकड़न से मुक्त होकर गंगा में कूड़ा -कचरा ,माला -फूल ,मूर्ति विसर्जन नहीं करना चाहिए |सरकार तो जिम्मेदार है ही हम कम जिम्मेदार नहीं हैं |अब वक्त आ गया है हमें गंभीरता से सोचना होगा कि हमें जीवनदायिनी नदियाँ चाहिए या गाद या मलबा |जिन नदियों के किनारे हमारे प्राचीन नगर बसे ,जिनके किनारे हमारी सभ्यताएं विकसित हुईं जिनकी छाँव में हमारी परम्पराएँ विकसित हुईं हम उनके प्रति इतने चुप क्यों हैं ,उदासीन क्यों हैं |कुछ आप सब भी सोचिये कुछ सरकार को भी सोचना चाहिए |

एक गीत -अपना दुःख कब कहती गंगा 
स्वर्ग छोड़कर 
चट्टानों में ,
वीरानों में बहती गंगा |
दुनिया का 
संताप मिटाती 
खुद कितने दुःख सहती गंगा |

रहे पुजारिन 
या मछुआरिन 
सबसे साथ निभा लेती है ,
सबके 
आंचल में सुख देकर 
सारा दर्द चुरा लेती है 
आंख गड़े 
या फटे बिवाई 
अपना दुःख कब कहती गंगा |

चित्रकार ,
शिल्पी माँ तेरी 
छवियाँ रोज गढ़ा करते हैं ,
कितने काशी 
संगम तेरे 
तट पर मंत्र पढ़ा करते हैं ,
सागर से 
मिलने की जिद में 
दूर -दूर तक दहती गंगा |

गाद लपेटे 
कोमल तन पर 
थककर भी विश्राम न करती ,
अभिशापित 
होकर आयी हो 
या तुमको प्रिय है यह धरती ,
कुछ तो है 
अवसाद ह्रदय में 
वरना क्यों चुप रहती गंगा |

तेरे जल में 
राख बहाकर 
कितने पापी स्वर्ग सिधरते ,
तेरी अमृतमय 
बूंदों से 
हरियाली के स्वप्न उभरते ,
जो भी डूबा 
उसे बचाती 
खुद कगार पर ढहती गंगा |
चित्र -गूगल से साभार 

Monday 1 October 2012

एक गज़ल -गाँधी जयंती पर

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी 
एक गज़ल 
कुदरत का करिश्मा हैं या वरदान हैं गाँधी

कुदरत का करिश्मा हैं या वरदान हैं गाँधी
इस दौर में इंसा नहीं भगवान हैं गाँधी 

अफ़साना -ए -आज़ादी के किरदार कई हैं 
अफ़साना -ए -आज़ादी का उनवान हैं गाँधी 

जन्नत से अधिक पाक है इस देश की मिट्टी 
इस देश की मिट्टी में ही कुर्बान हैं गाँधी 

ता उम्र रहे सत्य अहिंसा के पुजारी 
हर मुल्क में इस देश की पहचान हैं गाँधी 

मजहब से बहुत दूर वो इंसान थे पहले 
ईसाई हैं ,हिन्दू हैं ,मुसलमान हैं गाँधी 

स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी के लिए

  स्मृतिशेष माहेश्वर तिवारी  हिंदी गीत /नवगीत की सबसे मधुर वंशी अब  सुनने को नहीं मिलेगी. भवानी प्रसाद मिश्र से लेकर नई पीढ़ी के साथ काव्य पा...